
Maalik Film Review: जब दीपक, दीपक नहीं रहता… मालिक बन जाता है
प्रयागराज की तंग गलियों से निकली एक चिंगारी जब आग बनती है, तो वह सिर्फ रास्तों को नहीं जलाती—बल्कि कई ज़िंदगियों को झुलसा देती है। फिल्म *‘मालिक’* भी कुछ ऐसी ही आग की कहानी है। एक आम लड़का दीपक, हालातों से लड़ते-लड़ते एक ऐसा शख्स बन जाता है, जिसे लोग ‘मालिक’ कहने लगते हैं। और जब उस आम चेहरे में गुस्सा, टूटा हुआ आत्मसम्मान और धीरे-धीरे पनपती सत्ता की भूख झलकती है, तो पर्दे पर वह किरदार जीवंत हो उठता है—राजकुमार राव की शानदार अदाकारी की बदौलत।
राजकुमार राव – अभिनय की आत्मा
पूरी फिल्म जैसे राजकुमार राव के कंधों पर सवार है। कैमरा हर वक्त उनके चेहरे पर टिका रहता है, और उनकी आंखें मानो पूरी कहानी बयान करती हैं। चाहे वो चुप्पी हो, दर्द हो या गुस्से की तीखी लपटें—राजकुमार हर भाव को इतनी ईमानदारी से निभाते हैं कि दर्शक उनके किरदार दीपक के साथ एक गहरा जुड़ाव महसूस करने लगता है।
दमदार शुरुआत, लेकिन कमजोर पड़ता सेकेंड हाफ
फिल्म की शुरुआत ही इलाहाबाद की असली गलियों, रॉ कैमरा वर्क और राजनीतिक माहौल के चलते दर्शकों को बांध लेती है। आपको ऐसा लगता है कि आप उसी गली से गुजर रहे हैं, जहां दीपक ने अपना संघर्ष शुरू किया था। डायरेक्टर पुलकित ने लोकेशन, रंगों और कैमरे का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया है। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म जैसे अपनी ही गंभीरता से डर जाती है। यह डर साफ दिखता है, जब कहानी थ्रिल से हटकर मसाला और ड्रामा की ओर भटकती है। लगता है मेकर्स को भरोसा नहीं रहा कि ऑडियंस एक धीमी, गहरी कहानी को पसंद करेगी।
सपोर्टिंग कास्ट: मिला-जुला अनुभव
मनुषी छिल्लर इस फिल्म में नज़र तो आती हैं, लेकिन उनका अभिनय और स्क्रीन टाइम दोनों ही निराश करते हैं। वहीं सौरभ शुक्ला और प्रोसेनजीत जैसे दिग्गज कलाकारों को ज़रूरी स्पेस नहीं मिलता, जिससे उनके किरदार अधूरे लगते हैं। हां, अंशुमान पुष्कर ज़रूर इस भीड़ में अलग नज़र आते हैं। उनका अभिनय सच्चा और प्रभावशाली है, खासकर जब वो राजकुमार राव के साथ स्क्रीन शेयर करते हैं।
आइटम नंबर और सिनेमाई अपील
फिल्म में हुमा कुरैशी का एक आइटम नंबर भी है, लेकिन उसका ना कोई खास प्रभाव है, ना ही कहानी में कोई अहम भूमिका। यह गाना बस ‘डालना था’ इसलिए डाला गया है, ऐसा प्रतीत होता है।
कहानी और स्क्रिप्ट – सबसे बड़ा कमजोर पक्ष
‘मालिक’ की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी कहानी है। सिस्टम, पुलिस, राजनीति और एक आम आदमी का धीरे-धीरे क्राइम की दुनिया में जाना—ये सब हमने पहले भी कई बार देखा है। न कोई ऐसा मोड़ है जो चौंकाए, न कोई ऐसा सीन जो लंबे समय तक याद रहे। स्क्रिप्ट पुरानी सी लगती है और यही वजह है कि फिल्म थिएटर में बड़ा प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहती है।
A सर्टिफिकेट और वापसी की बात
फिल्म को A सर्टिफिकेट मिला है—मतलब इसमें भाषा की कड़वाहट, हिंसा और ऐसे दृश्य हैं जो फैमिली के साथ नहीं देखे जा सकते। दिलचस्प बात यह है कि ये फिल्म राजकुमार राव की सात साल बाद ऐसी वापसी है, जिसमें वो फिर से ‘शाहिद’, ‘ओमेर्टा’ या ‘अलीगढ़’ वाले गंभीर रंग में नज़र आते हैं। और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत भी है।
निष्कर्ष: देखें या छोड़ें?
तो क्या आपको ‘मालिक फिल्म’ देखनी चाहिए?
- अगर आप राजकुमार राव के फैन हैं, और उन्हें एक गहरे, थॉट-प्रोवोकिंग किरदार में देखना चाहते हैं—तो ये फिल्म आपके लिए है।
- अगर आप थिएटर में थ्रिल, स्पीड और ट्विस्ट की उम्मीद कर रहे हैं, तो ये फिल्म शायद आपको थोड़ा निराश कर सकती है।
संक्षेप में, ‘मालिक फिल्म’ में दम तो है, लेकिन झटका थोड़ा कम है। जब OTT पर आए, तो इसे ज़रूर देखिए। लेकिन थिएटर में टिकट लेने से पहले… एक बार नहीं, दो बार सोचिए।
रेटिंग: ⭐⭐⭐ (3/5)